By-अरविंद जयतिलक
हिमालय की गोद में बसे पड़ोसी देश नेपाल से अच्छी खबर है कि सात साल के राजनीतिक उठापटक के बाद आखिकार उसे अपना नया लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और गणतंत्रात्मक संविधान मिल गया। नेपाल के 601 सदस्यों की संविधान सभा ने 25 के मुकाबले 507 मतों से संविधान को पारित किया है। इस अर्थ में यह संविधान नेपाल की जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों ने तैयार किया है। इसका श्रेय नेपाल की जनता के साथ उन तीन राजनीतिक दलों नेपाली कांग्रेस, नेकपा-एमाले और संनेकपा-माओवादी को जाता है जिन्होंने सभी मतभेदों को भूलाकर संविधान निर्माण के लिए एकजुटता दिखायी। संविधान निर्माण का कार्य इसलिए भी चुनौतीपूर्ण था कि संविधानसभा में 10 फीसद सीटों का प्रतिनिधित्व करने वाली मधेशी पार्टियों ने प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के सुझाए सात प्रांतों के माॅडल वाले संघीय ढांचे का विरोध करने के लिए संविधान निर्माण प्रक्रिया का बहिष्कार कर रखा था। दरअसल यह समुदाय नए संविधान में अपने लिए एक अलग प्रांत चाहता था जिसे स्वीकार नहीं किया गया। अब भी उनका आंदोलन जारी है। इसके अलावा धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक व सांस्कृतिक आजादी, धर्मांतरण और नागरिकता का मुद्दा भी संविधान निर्माण की राह में भारी रुकावट था। दरअसल नेपाल के नए संविधान में धर्मनिरपेक्षता शब्द को लेकर आपत्ति थी और एक पक्ष नेपाल को हिंदू राष्ट्र का दर्जा दिए जाने का पक्षधर था। इसे लेकर देश भर में प्रदर्शन भी हुए। लेकिन संविधान सभा में यह प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। एक अन्य मसला धर्मांतरण का था जो अब भी अनसुलझा ही है। अगर इसे सुलझाया नहीं गया तो निचली जातियों और वंचित समूहों के ईसाई धर्म स्वीकार किए जाने की आशंका बरकरार रहेगी। संविधान के स्वरुप नजर डालें तो इसके मुताबिक नेपाल को 7 प्रांतों में विभाजित करने का प्रावधान है। एक उच्चस्तरीय आयोग एक साल के दरम्यान इन सातों प्रांतों को अंतिम रुप दे देगा। नए संविधान के तहत राष्ट्रपति देश के राष्ट्राध्यक्ष होंगे और कार्यकारी शक्तियां प्रधानमंत्री में निहित होगी। संसद दो सदनीय होगा जिसके निचले सदन में 375 सदस्य और ऊपरी सदन में 60 सदस्य होंगे। संविधान में 37 खंड, 304 अनुच्छेद और 7 अनुलग्नक का प्रावधान है। केंद्र में संधीय सरकार होगी जबकि प्रांतों में प्रांतीय सरकार होगी। जिला तथा ग्राम स्तर पर भी शासन का प्रावधान है। यानी नेपाल में अब सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा। नए संविधान में आरक्षण और कोटा व्यवस्था के जरिए हाशिए पर पड़े वंचित, क्षेत्रीय और जातीय समुदायों के सशक्तीकरण के अलावा मूल निवासियों, दलितों अछूतों और महिलाओं के लिए स्थानीय प्रशासन, प्रांतीय और संघीय सरकार से लेकर हर स्तर पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है। अच्छी बात यह है कि इसमें थर्ड जेंडर को भी मान्यता और उनके अधिकारों की व्यवस्था की गयी है। नेपाली भाषा को राष्टीªय भाषा का दर्जा दिया गया है और साथ ही सभी भाषाओं समेत जातीय भाषाओं को भी मान्यता दी गयी है। नेपाली हिंदुओं की पूजनीय गाय को राष्ट्रीय पशु और रोडेन्ड्रान को राष्ट्रीय पुष्प घोषित किया गया है। गौरतलब है कि जनवरी, 2014 में हुई बैठक में सभी राजनीतिक दलों ने निर्णय लिया था कि 22 जनवरी, 2015 तक वे संविधान का निर्माण कर लेंगे। लेकिन प्रस्तावित नए संविधान के विवादित मुद्दों की प्रश्नावली पर मतदान शुरु करने की पहल पर ही मतभेद उभर आए और निर्धारित समय में संविधान निर्माण कार्य पुरा नहीं हो सका। इतिहास पर दृष्टिपात करें तो मई, 2008 में माओवादियों के हिंसक विद्रोह समाप्त होने के बाद जब पहली संविधान सभा का निर्वाचन हुआ तो उम्मीद बंधी की संविधान निर्माण का रास्ता साफ हो जाएगा। लेकिन राजनीतिक विवादों की वजह से संविधान सभा मई, 2012 तक संविधान निर्माण कार्य नहीं कर सकी। गौर करें तो इसके लिए काफी हद तक माओवादी ही जिम्मेदार रहे। इसलिए कि 2005 में राजशाही खत्म करने के लिए जिन 12 सूत्रीय समझौता पर सहमति बनी वे इससे सहमत थे और राजनीति की मुख्य धारा में आना भी स्वीकार किया। लेकिन वे अपनी जुबान पर कायम नहीं रहे। अगस्त 2008 में माओवादी दल यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल के नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड के प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद उम्मीद बनी थी कि नेपाल में लोकतंत्र की रफ्तार तेज होगी और नेपाल को संविधान मिल जाएगा। उनके कार्यकाल में संविधान के प्रारुप पर बातचीत के लिए दर्जनों बार समितियां बनी और इसकी अवधि दो बार बढ़ानी पड़ी। किंतु दलों के बीच सहमति न बन पाने के कारण संविधान सभा को भंग करना पड़ा। जबकि माओवादी गुट राजशाही को खत्म करने और सत्ता व्यवस्था में बदलाव के लिए ही एक मंच पर आए थे। लेकिन सच्चाई यह है कि उन्होंने जनतंात्रिक मूल्यों को महत्व नहीं दिया। उल्टे उनकी विघटनकारी राजनीति ने नेपाल में अराजकता पैदा की और खुद उन्हें भी अलोकप्रिय बना दिया। प्रचंड सरकार द्वारा नेपाली सेनाध्यक्ष को पद से हटाने के फैसले को राष्ट्रपति रामबरन यादव द्वारा असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद स्थिति और बिगड़ गयी और अंततः प्रचंड को 4 मई 2009 को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। प्रचंड की सरकार की बस इतनी उपलब्धि रही कि उसने नेपाल के हिंदू राष्ट्र के स्वरुप को छिन्न-भिन्न कर दिया। हालांकि अब नया संविधान लागू हो जाने के बाद नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बन गया है। लेकिन नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की मांग थमी नहीं है। राजा ज्ञानेंद्र समर्थित दल इस मसले को जिंदा बनाए हुए हैं। प्रचंड के उपरांत बाबूराम भट्टराई देश के प्रधानमंत्री बने और संविधान सभा का गठन हुआ। चार बार कार्यकाल भी बढ़ाया गया। लेकिन अरबों के खर्च के बाद भी नेपाल को नया संविधान नहीं मिला। इससे नाराज नेपाली सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान सभा का कार्यकाल पांचवीं बार बढ़ाने से इंकार कर दिया। इस तरह 2008 में गठित पहली संविधान सभा बगैर संविधान बनाए ही विसर्जित हो गयी। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति खिलराज रेग्मी को प्रधानमंत्री का दायित्व सौंपा गया और उनकी ही निगरानी में 2013 का चुनाव संपन्न हुआ। नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोइराला को देश का नया प्रधानमंत्री चुना गया। नेपाल के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो 1990 में नेपाल में बहुदलीय प्रजातंत्र की स्थापना हुई। दलों के माध्यम से जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति को सरकार का प्रमुख और राजा को राष्ट्राध्यक्ष बनाए रखने पर आम सहमति बनी। राजतंत्र के झंडे के नीचे 1991 में चुनाव हुआ और नेपाली कांग्रेस को बहुमत हासिल हुआ। जीपी कोइराला देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन तीन वर्ष के दरम्यान ही पार्टी में अंतर्कलह शुरु हो गया। कम्युनिस्टों के उपद्रव-आंदोलन से आजिज आकर उन्होंने संसद को भंग करने का निर्णय लिया। 1994 में चुनाव के जरिए एक बार फिर लोकतंत्र को आजमाने की कोशिश हुई। लेकिन किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़े दल के रुप में उभरी लिहाजा उसके नेता मनमोहन अधिकारी देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन वह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। इस दौरान जो महत्वपूर्ण बात रही वह यह कि नेपाल में माओवादियों का भय पसरता गया और राजा ज्ञानेंद्र उनकी भय दिखाकर अपनी गद्दी सुरक्षित रखने में कामयाब रहे। लेकिन 1996 में माओवादियों ने हिंसक छापामार युद्ध को अंजाम देकर नेपाल को अराजकता की आग में ढ़केल दिया। इस हिंसक आंदोलन में तकरीबन 15000 से अधिक लोग मारे गए। माओवादियों ने नेपाल में भारत विरोधी भावनाओं को भड़काया। नेपाल को भारत का अर्ध औपनिवेशिक देश भी करार दिया। नतीजतन नेपाल में जनक्रांति की स्थिति बन गयी और 2006 में राजा ज्ञानेंद्र को राजगद्दी से हटना पड़ा। संसद तो बहाल हो गयी लेकिन देश को चलाने के लिए संविधान का निर्माण नहीं हुआ। लेकिन नेपाली जनता के 70 साल के संघर्ष के उपरांत अब नेपाल को नया संविधान मिल गया है। एक राष्ट्र के लिए इससे बड़ी उपलब्धि कुछ और नहीं हो सकती। लेकिन इस उपलब्धि को अवसर में बदलना होगा। देश में दशकों से गरीबी, असमानता और क्षेत्रीय असंतुलन व्याप्त है जिससे ढेरों कठिनाईयां उत्पन हुई है और उसे दूर करना होगा। इसके अलावा नए राज्य की मांग कर रहे मधेशी और थारु समुदाय जो नेपाल में बसे हुए मूलरुप से भारतीय हैं उनकी चिंता का भी ख्याल करना होगा।
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