प्रधान संपादक,उर्जांचल टाइगर
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पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बतौर मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय पर शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष के समापन समाहरोह में व्याख्यान देने पहुंचे थे।
अपने व्याख्यान की शुरुआत में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा की"मैं यहाँ आपसे तीन चीज़ों के बारे में अपनी समझ साझा करने आया हूँ। राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति. ये तीनों सब एक दूसरे से जुड़े हैं, इन्हें अलग नहीं किया जा सकता।"
इसके बाद उन्होंने पढ़ कर "राष्ट्र' की परिभाषा बताई। भाषण के शुरुआत में ही तमाम अटकलों पर विराम लगाते हुए,उन्होंने ने राष्ट्र के नाम पर संविधान का मज़ाक उड़ाने वाले लोगों को इस बात का सन्देश दे दिया कि एक सफल लोकतंत्र के लिए धर्म के इतर संविधान कितना महत्वपूर्ण है।
प्रणब मुखर्जी ने अपने भाषण में इस बात को प्रमुखता से कहा कि राष्ट्रवाद किसी भी देश की पहचान है। देशभक्ति का अर्थ देश की प्रगति में आस्था होता है। उन्होंने कहा कि धर्म कभी भारत की पहचान नही हो सकता। संविधान में आस्था ही सच्चा राष्ट्रवाद है। राष्ट्रवाद सार्वभौमिक दर्शन "वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः' से जन्मा है।
उन्होंने राष्ट्र के दो मॉडल यूरोपीय और भारतीय.का जिक्र करते हुए कहा कि यूरोप का राष्ट्र एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल और एक साझा शत्रु की अवधारणा पर टिका है, जबकि भारत राष्ट्र की पहचान सदियों से विविधता और सहिष्णुता से रही है।
प्रणब मुखर्जी ने अपने पूरे भाषण में नेहरु का नाम केवल एक बार लिया लेकिन जो कहा वह नेहरू और गांधी के विचारधारा से ही प्रेरित,धर्मनिरपेक्षता और विविधता में एकता पर आधारित था। जिसके विरोध में भाजपा और आरएसएस कभी बोस को,तो कभी पटेल को सामने खड़ा करने की कोशिश करते रहें है।
Our national identity has emerged after a long drawn process of confluence and assimilation, the multiple cultures and faiths make us special and tolerant: Pranab Mukherjee at RSS's Tritiya Varsh event in Nagpur pic.twitter.com/CbRNQ7QYyx— ANI (@ANI) June 7, 2018
अपने भाषण प्रणब ने कहा कि "भारत की आत्मा सहिष्णुता में बसती है। इसमें अलग रंग, अलग भाषा, अलग पहचान है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई से मिलकर यह देश बना है।" इसके अलावा प्रणब ने ये भी कहा कि "धर्म, मतभेद और असिहष्णुता से भारत को परिभाषित करने का हर प्रयास देश को कमजोर बनाएगा। असहिष्णुता भारतीय पहचान को कमजोर बनाएगी।"
उन्होंने अपने भाषण में इतिहास का जिक्र ठोस, तथ्यों पर आधारित और तार्किक इतिहास महाजनपदों से किया यानी ईसा पूर्व छठी सदी से की यह उस इतिहास का विपरीत है जो संघ पढ़ाता और गढ़ता रहा है।जो हिंदू मिथकों से भरा काल्पनिक इतिहास जिसमें जब तक सब हिंदू हैं, सब ठीक है जैसे ही 'बाहरी' लोग आते हैं सब ख़राब हो जाता है। उस इतिहास में संसार का समस्त ज्ञान, वैभव और विज्ञान है. उसमें पुष्पक विमान उड़ते हैं, प्लास्टिक सर्जरी होती है, टेस्ट ट्यूब बच्चा पैदा होता है,लाइव टेलीकास्ट होता है,महाभारत काल में इंटरनेट होता है।
प्रणब मुखर्जी ने बताया कि ईसा से 400 साल पहले ग्रीक यात्री मेगास्थनीज़ आया तो उसने महाजनपदों वाला भारत देखा, उसके बाद उन्होंने चीनी यात्री ह्वेन सांग का ज़िक्र किया जिसने बताया कि सातवीं सदी का भारत कैसा था, उन्होंने बताया कि तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय पूरी दुनिया से प्रतिभा को आकर्षित कर रहे थे।
उसके बाद मुखर्जी ने बताया कि किस तरह 'उदारता' से भरे वातावरण में रचनात्मकता पली-बढ़ी, कला-संस्कृति का विकास हुआ और ये भी बताया कि भारत में राष्ट्र की अवधारणा यूरोप से बहुत पुरानी और उससे कितनी अलग है।
पूर्व राष्ट्रपति ने कहा कि "चंद्रगुप्त मौर्य वंश का अशोक वह महान राजा था जिसने जीत के शोर में, विजय के नगाड़ों की गूंज के बीच शांति और प्रेम की आवाज़ को सुना, संसार को बंधुत्व का संदेश दिया।"
संघ का हमेशा से कहना रहा है कि भारत महान सनानत धर्म का मंदिर है, दूसरे लोग बाहर से आए लेकिन भारत का मूल आधार हिंदू धर्म है और इस देश को हिंदू शास्त्रों, रीतियों और नीतियों से चलाया जाना चाहिए, लेकिन इसके बरअक्स मुखर्जी ने कहा कि "एक भाषा, एक धर्म, एक पहचान नहीं है हमारा राष्ट्रवाद।"
गांधी को याद करते हुए कहा कि राष्ट्रपिता ने कहा था कि भारत का "राष्ट्रवाद आक्रामक और विभेदकारी नहीं हो सकता, वह समन्वय पर ही चल सकता है।"
दादा ने, हिंदुत्व की संस्कृति को मानने वालो को उनके मंच से ही गंगा जमुनी तहजीब का पाठ पढ़ा दिया और यह भी कहा के विचारों के आदान प्रदान के लिए होने वाले तार्किक बहस के बीच हिंसा ख़त्म होना चाहिए,देश में प्रेम और सहिष्णुता बढे नफरत कम हो
पूर्व राष्ट्रपति ने अपने भाषण में जो कहा वह उनके उदार विचार थे,जो गंगा जमुनी तहज़ीब,लोकतांत्रिक मूल्यों, संविधान सम्मत,और गाँधी के अहिंसावादी सोंच पर आधारित विकासशील भारत की बात करता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शिक्षित,अनुशासित और राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित नेता और कार्यकर्ता' इसको कितना स्वीकारते हैं, और कितना नकारते हैं यह उन पर निर्भर करता है।