अब्दुल रशीद
प्रधान संपादक,उर्जांचल टाइगर
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जब पेट्रोल के दाम गिरे तब नसीब वालों की सरकार और जब पेट्रोल के दाम बढे तो पिछली सरकार जिम्मेदार। जब अच्छा चीज के लिए भाजपा की सरकार पीठ थपथपा लेती है,तो खराब चीज के लिए दूसरो पे दोष मढने के बजाय उनके शासन काल में होने वाले भ्रष्टाचार,आराजकता,पर्यावरण परिवर्तन और जन आंदोलनों के लिए जिम्मेदारी लेना ही चाहिए,यही लोकतंत्र में सत्ता का मर्म है।
प्रधान संपादक,उर्जांचल टाइगर
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जब पेट्रोल के दाम गिरे तब नसीब वालों की सरकार और जब पेट्रोल के दाम बढे तो पिछली सरकार जिम्मेदार। जब अच्छा चीज के लिए भाजपा की सरकार पीठ थपथपा लेती है,तो खराब चीज के लिए दूसरो पे दोष मढने के बजाय उनके शासन काल में होने वाले भ्रष्टाचार,आराजकता,पर्यावरण परिवर्तन और जन आंदोलनों के लिए जिम्मेदारी लेना ही चाहिए,यही लोकतंत्र में सत्ता का मर्म है।
शहरों का प्रदूषण आज देश के लिए सब से भयंकर बीमारी है। यह भूखमरी की तरह ही विकराल रूप लेती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2016 में दुनिया के 15 सब से गंदे शहरों की सूची जारी की है। जिसमें से 14 भारत में हैं। हालांकि रिपोर्ट में शामिल पूरी दुनिया के 859 शहरों की वायु गुणवत्ता के आंकड़ों को देखें तो यह चिंता बढ़ाने वाली है। भारत के 14 शहरों का इसमें शामिल होना इसलिए भी चिंता पैदा करती है क्योंकि अभी हमारे देश में वायु प्रदूषण संकट से निपटने के लिये बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
2014मोदी सरकार के आने के बाद स्वच्छता अभियान की शुरुआत बड़े हो हल्ला के साथ हुआ था और आज भी इसका डंका बजाया जा रहा है लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह है की, 2014 में दुनिया के सब से गंदे 15 शहरों में से भारत के 3 ही शहर थे।लेकिन अब 4 सालों में 11 शहर और जुड़कर 14 हो गए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट स्वच्छता अभियान की असलियत प्रचार के इतर जमीनी स्तर पर क्या है उसकी पोल खोलती है।
"अगले पांच सालों में हमारे गांव, शहर, गलियां, स्कूल, मंदिर और अस्पतालों में कहीं गंदगी नज़र नहीं आएगी." - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (2014)
गंगा किनारे बसा कानपुर सब से गंदा है। यमुना किनारे बसा फरीदाबाद दुसरे स्थान पर है, तो गंगा के किनारे बसा वाराणसी शहर तीसरे स्थान पर। गया चौथे स्थान पर है व और गंगा किनारे बसा पटना पांचवे स्थान पर। देश की राजधानी दिल्ली छठे स्थान पर है और योगी आदित्यनाथ का आश्रम लखनऊ सातवें स्थान पर है। वृंदावन मथुरा से थोड़ा दूर आगरा आठवें स्थान पर है। श्रीनगर जो कहते नहीं अघाता था कि दुनियां में कहीं स्वर्ग है तो,यहीं है दसवें स्थान पर है।
दक्षिण भारत के किसी भी राज्य के शहरों का नाम 15 गंदे शहरों में से एक भी शहर नहीं है। 15 में से 14 के 14 भारतीय जनता पार्टी की सरकारों के राज्य में हैं।
इस सच्चाई से भी नकारा नहीं जा सकता के गंदगी पिछली सरकारों में नहीं था। लेकिन वाहवाही लूटने के लिए पिछली सरकार के अच्छे योगदान को जब गलत बताएंगे तो आपके शासनकाल के ख़राब आंकड़े सही। यानी चित भी मेरी पट भी मेरी। ऐसा कहना और करना सरकार के गैरजिम्मेदाराना रवैये को दर्शाता है। सरकार की ऐसी छवि लोकतांत्रिक देश के लिए शुभ संकेत नहीं।
स्वच्छता अभियान को टॉयलेट निर्माण से जोड़कर देखा जा रहा है। ऐसा करना गंदगी से जुडी समस्या को स्वच्छता के नाम पर नजरअंदाज करने जैसा है, बिना गंदगी के सफाई के स्वच्छता की बात करना महज़ दिखावा सा लगता है।
2011 की जनगणना के मुताबिक, पूरे देश में सात लाख 40 हजार से ज्यादा घर ऐसे हैं जहां मानव मल हाथों से हटाया जाता है। इसके अलावा, सेप्टिक टैंक, सीवर, रेलवे प्लेटफॉर्मों पर भी यही काम होता है।
2011 की ही सामाजिक आर्थिक जातीय गणना बताती है कि ग्रामीण इलाको में एक लाख 82 हजार से ज्यादा परिवार, हाथ से मैला उठाते हैं।
ये भी सच है कि 1993 से ही किसी को मैनुअल स्केवेजिंग के काम पर लगाना कानूनन अपराध घोषित है।
विकास की ओर तेज़ी से अग्रसर भारत का एक स्याह और विडंबनापूर्ण पक्ष यह है कि न सिर्फ ये काम आज भी जारी है, बल्कि इसके खात्मे के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी कोई गंभीर पहल,चेतना या ठोस कार्य योजना अब तक किसी भी सरकार द्वारा बनाया ही नहीं गया।
विकास की ओर तेज़ी से अग्रसर भारत का एक स्याह और विडंबनापूर्ण पक्ष यह है कि न सिर्फ ये काम आज भी जारी है, बल्कि इसके खात्मे के लिए सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी कोई गंभीर पहल,चेतना या ठोस कार्य योजना अब तक किसी भी सरकार द्वारा बनाया ही नहीं गया।
आंकड़ो में गंदे शहर गंदे इसलिए है की हमारे समाज में गंद को उठाना आज भी बेहद गंदा काम समझा जाता है। पुरखो से यह काम करने वाले दलित भी इस काम को करने से अब परहेज़ करते हैं। क्योंकि इस काम के कारण लोग आज भी छुआछूत की भावना रखते हैं। यही वज़ह है की यहाँ का सफाई कर्मचारी इस काम को काम न समझकर अपने समाज के लिए जन्मजात बोझ समझता है। दलित-उत्पीड़ित-शोषित समुदाय को स्वयं जागरूक और सजग होना होगा कि वे अपनी पॉलिटिकल स्पेस का निर्माण खुद करें, आगे आएं और पीढ़ियों और सदियों की बेड़ियों से मुक्त हो सकें।
छुआछूत और जातीय भेदभाव आदि के लिए कानून और धाराएं तो हैं लेकिन उन पर अमल सुनिश्चित करना होगा। उनका कथित पुनर्वास फाइलों के बजाय धरातल पर करना होगा। तभी गांधी के स्वच्छ भारत का सपना साकार होगा।
स्वच्छता अभियान का सही मायने में सकारात्मक परिणाम तभी नज़र आएगा जब टॉयलेट निर्माण के साथ साथ स्वच्छता से जुड़े हर पहलू पर गंभीरता से विचार किया जाएगा। इस मानसिकता को भी बदलना होगा की सफाई की जिम्मेदारी सिर्फ सफाई कर्मचारियों की है। सभी को इस मुहीम में जुड़ना होगा और झाड़ू लगाते फोटो खिचवाने के बजाय हांथ में दस्ताना पहन कर सामने फैले और समाज मे फैले कूड़ा को साफ़ करना होगा।