हम जिस पर्यावरण में रहते हैं वह अनेक घटकों से मिलकर बना हैं। इसका प्रत्येक घटक हमें किसी न किसी रूप में लाभ पहुंचाता हैं। हमारी आवश्कताएं चाहे मौलिक हो, भौतिक हो, सामाजिक हो, अर्थिक हो, अथवा सांस्कृतिक हो इनकी पूर्ति प्रकृति से ही संभव होती हैं। प्रकृति ने हमें भूमि, जल, वायु, खनिज, ईधन, सूर्य का प्रकाश और वन आदि ऐसे संसाधन विरासत में दिया हैं, जो हमारे जीवन का बहुमूल्य साधन हैं। यह तो हम सभी जानते हैं कि संसाधन सम्पूर्ण पृथ्वी पर असमान रूप से वितरित हैं तथा इनका उपयोग मनुष्य के क्रियाकलापों पर निर्भर करता हैं। यदि इन संसाधनों का उचित प्रयोग करें तो मानव जाति का कल्याण और यदि दुरूपयोग हो तो विनाश निश्चित हैं।
अलबत्ता, समग्र राष्ट्रीय विकास और देश के नागरिकों के लिए समुचित जीवन परिस्थितियों की सुनिष्चिता के फलस्वरूप बढती जनसंख्या ने भारत में प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डाला हैं। समस्या की गंभीरता सीमित प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के साथ उन्हें भविष्य के वास्ते सुरक्षित और संरक्षित रखने पर कम ध्यान देने के कारण बढ गई हैं। जो हमारे देश के विकास और प्रगति के लिए खतरा है। मानव ने प्राकृतिक संसाधनों के विवेकहीन और अनियंत्रित उपभोग से स्वयं को प्रदूषण, भूक्षरण, जल संसाधनों के अवक्रमण, वनोन्मूलन और जैव-विविधता के लोप के रूप में प्रकट किया हैं। हम इन कारकों को पारिस्थितिकी व्यवस्था के लिए खतरा और यहॉं तक कि अपने स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरे के रूप में देख सकते हैं।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकलन के अनुसार भारत को अनेक घातक प्राकृतिक आपदाओं की वजह से हर साल लगभग 9.8 अरब डालर की क्षति होती हैं। देश को 58.6 फीसदी जमीन भूकंप के लिए संवेदनशील मानी जाती हैं जबकि 8.5 फीसदी पर चक्रवात का खतरा बना रहता हैं। वीभत्स, बाढ, भूस्ख्लन और आग आपदा के खतरों को कम करने से संबंधित संयुक्त राष्ट्र संघ के विभाग के आंकलन के अनुसार भारत को विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं की बदौलत हर वर्ष कम से कम 9.8 अरब डालर का नुकसान होता हैं। यह सब मानवघटित प्राकृतिक असंतुलन का दुष्परिणाम हैं जिसे हम और आने वाली पीढी भी झेलेगी।
अंतनिर्नहित पर्यावरण वैज्ञानिकों के एक अंर्राष्ट्रीय समूह ने हाल ही में एक अध्ययन कर बताया हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से हमारा ग्रह पृथ्वी उस खतरनाक बिंदु पर पहुंच गया हैं जहां से वापस लौटना अब संभव नहीं हैं। या यह कहें कि अपरिवर्तनीय स्थिति बन गयी हैं। गैर प्रजातांत्रिक ढंग से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन एवं कु-प्रबंधन दुनिया भर में आज भी जारी हैं। इस पृथ्वी पर जो संसाधन एक समय अंतहीन लगते थें, उनके बारे में अब यह स्पष्ट हो गया हैं कि सभी सीमित हैं फिर चाहे वह खनिज हो, पेट्रोल हो, कोयला हो या प्राकृतिक गैसादि हो।
दरअसल, हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के तौर पर जनसंख्या वृद्धि और जीवन की बुनियादी आवष्यकताओं गोया भोजन, ऊर्जा, रोजगार, स्वास्थ्य और आवास की बढती मॉंग हैं। अल्प अवधि के लाभों के लिए विभिन्न प्रकार की विकासात्मक कूटनीतियॉं भी प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण और पर्यावरणीय क्षति के लिए उत्तरदायी हैं। लोगों का तुच्छ और स्वार्थपूर्ण रवैया समस्या को और अधिक गंभीर करते हैं। परिष्कृत कृषि भूमि पर विकासमूलक, आवासीय और औद्योगिकरणादि और खेती में रासायनिक खादों और कीटनाषकों का उपयोग अन्तोतोगत्वा मृदा की उत्पादकता को नुकसान पहुंचाता है।
लिहाजा, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के लिए कूटनीतियॉं बढती आबादी और बढती मांग के दृष्टिगत दीर्धकालिन होना आवश्यक हैं। प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन नीतियॉ के दीर्धकालिक पहलु जनसंख्या, निर्धनता और असामनता की समस्याओं से संबंधित हैं। अतः कृषि, निर्धनता, वानिकी और जैव-विविधता से संबंधित विभिन्न पर्यावरणीय नीतियों के प्रतिपादन के संबंध में एक समेकित सुधार के उपाय की आवश्यकता हैं। भू-आधारित संसाधनों के संरक्षण में कृषि में संस्थागत सुधार एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता हैं। इन प्रयासों की सफलता को सुनिश्चित करने के लिए समुचित बजट, सार्थक योजना और कडे नियमों, प्रावधानों को धरातल में लाने की आवश्यकता हैं।
किन्तु, प्रकृति से प्राप्त संसाधनों के प्रति हमारी सोच भ्रमात्मक हैं। हम यह मानकर चलते है कि प्रकृति से प्राप्त संसाधन हमारे लिए ही है। हम इसका जितना चाहें जैसा चाहें वैसा उपयोग कर सकते हैं, किन्तु यह सही नहीं हैं। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में सीमित मात्रा में ही हैं। एक दिन ये समाप्त हो जाएगे। यह हमारे हाथ में हैं कि हम कितनी मितव्ययिता के साथ इन्हें खर्च करते है। यह साधन हमारी आगामी पीढी की धरोहर भी हैं। हमारा दायित्व है कि हम उनके लिए इसे संरक्षित करें। बढते असीमित जीवन तथा संपन्नता की दौड ने हमें संसाधनों के अति दोहन के लिए मजबूर कर दिया हैं।
वस्तुतः प्राकृतिक संसाधनों के दोषपूर्ण, विषम विभाजन और उपयोगिता का चिन्हांकन कर लेनी चाहिए। क्योंकि यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरणीय अवरोध में योगदान देते हैं। इस तरह असमानताऐं सभी प्रकार की समस्याऐं उत्पन्न करती हैं। इसीलिए प्राकृतिक संसाधन का संरक्षण और सवर्धन करना सर्वोचित होंगा। प्रत्युत प्राकृतिक संसाधन के इस संकट से निपटने के लिए संसाधन के सतत् दोहन से उत्पन्न प्रदूषण को दृष्टिगत रखते हुए गैर वैकल्पिक संसाधन स्रोत के उपयोग हेतु प्रोत्साहित होना और किया जाना चाहिए। याद रहें, आज सीमित प्राकृतिक साधन को बचायेगें तो कल आगामी पीढी की यह धरोहर हमारे जीवन को बचायेगी।
हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक, पत्रकार व विचारक