लोकतंत्र की सबसे बड़ी खुबसूरती यह है की जिस राजनितिक पार्टी को सरकार बनाने के लिए जनता अपना वोट दान करती है। वह राजनितिक पार्टी सरकार बनाने के बाद पार्टी और समर्थक से जुदा होकर पूरे देश के लिए हो जाता है।सरकार चलाने वाले प्रधानमंत्री और मंत्रियों को उनके दायित्वबोध के लिए शपथ दिलाई जाती है।
लोकतंत्र में जनता जनार्दन होता क्योंकि जनता का वोट ही यह तय करता है कि देश की बागडोर कौन संभालेगा। एक बात जो बेहद अहम है वो यह के जनता सिर्फ सरकार ही नहीं चुनती वह सरकार के काम काज़ पर नज़र रखने के लिए विपक्ष भी चुनती है,जो सरकार की गलत नीतियों का विरोध करे। यानी सत्ता को जवाबदेह बनाने के लिए सवाल पूछने का हक़ विपक्ष को देता है। लोकतंत्र में विपक्ष के सवाल का जवाब सरकार को देना ही चाहिए,ऐसा न करना न केवल जनता के मतों को अपमान है बल्कि लोकतंत्र के लिए भी ठीक नहीं।
मौजूदा वक्त में विपक्ष ने कई सवाल सरकार से पूछे हैं लेकिन जवाबदेह सरकार जवाब देने के बजाय विपक्ष से सवाल पूछ रही है,क्या सवाल के जवाब नहीं है या है तो जवाब क्यों जवाब नहीं दिया जा रहा है। बहरहाल मौसम चुनावी है तो ऐसे में तर्क वितर्क और कुतर्क का सियासी खेल तो होता ही रहेगा।
चिंतनीय तो यह है की,कृषिप्रधान देश में किसान बेहाल है,किसानों की आत्महत्या बढ़ रही,बीते दिनों अहिंसा दिवस पर हिंसा हुई और जय जवान जय किसान का नारा देने वाले देश के लाल के जयंती पर अपने फर्ज और हक के लिए जवान और किसान को आमने सामने होना पड़ा जो बेहद दुखद घटना थी।
दूसरी तरफ गुजरात में अमानवीय घटना घटित हुई जब 14 माह की बच्ची के साथ बलातकार हुआ,घटना के बाद पुलिस ने दोषी को गिरफ्तार कर लिया और भारतीय कानून यकीनन उसे उसकी सजा देगी। लेकिन घटना के बाद नफ़रत और बदले की राजनीती शुरू कर कुछ दिग्भ्रमित लोगों ने उत्तर भारतीय मजदूरों के साथ दुर्व्यवहार कर उन्हें पलायन को मजबूर कर दिया।
एक तरफ़ किसान अहिंसा दिवस पर लाठी खाकर और आधे अधूरे हक़ मिलने का आश्वासन लेकर,तो दूसरी तरफ़ नफ़रत और बदले की राजनीती के शिकार उत्तर भारतीय मजदूर चोटिल हो कर, दोनों दुखी मन से वापस घर लौट गए।
इन मामलों को लेकर सियासत भी चरम पर है लेकिन जो महत्वपूर्ण सवाल है वह यह के आज़ादी के सात दशक बाद भी कोई सरकार क्यों नहीं किसान को उसका हक़ दे सकी,और क्यों किसान की बात सुनने के बजाय अहिंसा दिवस के दिन उन पर लाठी बरसाने पड़े? उत्तर भारतीय सरकारें अब तक अपने राज्यों का इतना विकास क्यों नहीं कर सकी ताकि पेट की आग़ बुझाने उत्तर भारतीय मजदूर को अन्यत्र न जाना पड़े?
देश का संविधान जब हर भारतीय को यह हक़ देता है की वह देश में कहीं भी अपना आशियाना बना सकता है और अपने लिए रोजीरोटी कमा सकता है (जम्मू-कश्मीर को छोड़कर) तो ऐसे में रोजीरोटी कमाने वाले उत्तर भारतीय मजदूर को परप्रांतीय कह कर खदेड़ने वाले लोगों को किसने हक़ दे दिया ऐसा करने का। संविधान द्वारा दिया गया हक़ को छीनने वालों का यह कृत असंवैधानिक नहीं?
पांच राज्यों में चनाव की घोषणा के बाद सियासी पारा तो चढ़ा है लेकिन जनता के मुद्दे ग़ायब है। सभी राजनितिक पार्टी विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की बात तो करती है लेकिन जमीनी हकीक़त कुछ और दिखाई देता है ऐसे में जनता को ही जागरुक होकर इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा की आख़िर जनता के वोट से विजयश्री प्राप्त करने वाली राजनितिक पार्टियां क्यों जनता के मुद्दे को दरकिनार कर भावनात्मक और भ्रामक मुद्दों के सहारे भरमा कर वोट लेना चाहती है।