सिंगरौली।।एनसीएल में वर्षो से एक ट्रेड यूनियन का आंतरिक विवाद चला आरहा है।यूनियन का विबाद उपश्रमायुक्त/रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन के कार्यालय से लेकर जिला सत्र न्यालय से होते हुए उच्चन्यालय तक जा पहुचा।जिस पर न्यायालय ने पुनः उपश्रमायुक्त को चार सप्ताह में मामले का निस्तारण करने का आदेश जारी करते हुए याचिका का निस्तारण कर दिया।
उच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में दोनो पक्षों की दलीलों को सुनने और अभिलेखों का अवलोकन करने के पश्चात उपश्रमायुक्त ने अपने निर्णय में पूर्व की भांति ही फैसला करते हुए दोनो पक्षों का दावा खारीज कर दिया।इस तरह फिर दो ही रास्ते बचे जिसमे एक न्यायालय की शरण मे जाए या आपस मे समझौता कर एक फार्म जे जमा करे,जब तक ऐसा नही होता तब तक तो पंजीयन निलंबित हो ही गया।
उपरोक्त परिस्थितियों में एनसीएल में कार्यरत उक्त यूनियन के महासंघ के राष्ट्रीय नेतृत्व ने हस्तक्षेप किया। पहले दोनो पक्षों को समझा बुझा कर बीच का रास्ता निकालना चाहा पर बात नही बनी तो,यूनियन के सदस्यों को और दूसरे यूनियन में जाने से रोकने के लिए महासंघ के राष्ट्रीय महामंत्री के निर्देशन में फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने एक अस्थायी समिति "डे टू डे" काम के लिए पूर्व के सदस्यों में से ही एक कमेटी नामित कर एनसीएल प्रवंधन को भेज दिया और आग्रह किया कि स्थायी हल निकलने तक इस कमेटी को प्रबन्धन आईआर में मान्यता दे,जिससे महासंघ का प्रतिनिधित्व कम्पनी में होता रहे ।
उक्त पत्र के आधार पर एनसीएल प्रबन्धन ने फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पत्र का हवाला दे आईआर देने का आदेश जारी कर दिया ।
जैसे ही इस तरह के पत्र जारी होने की सूचना दूसरे खेमे को लगी तो उनका एक प्रतिनिधि मंडल अध्यक्ष सह प्रबन्ध निदेशक एनसीएल से मिल कर इस पर लिखित आपत्ति दर्ज करते हुए आदेश को विधिसम्मत न होने की बात कही ।
जिसको सज्ञान में लेते हुए प्रबन्धन ने फिलहाल अपने आदेश के क्रियान्वन को अग्रिम आदेश तक के लिए मौखिक सूचना पर स्थगित कर दिया और एनसीएल प्रबन्धन ने पुनः एक पत्र फेडरेशन के अध्यक्ष को लिख कर स्पष्टीकरण मांगा हैं।
इसे कहते हैं नहला पर, दहला की मार!और तू डाल डाल ,तो हम पात, पात, की यहा दोनो पच्छ कहावत चरित्रार्थ करने में लगे हुए हैं। एक दूसरे पच्छ वाले एक दूसरे को पटखनी देने में रात दिन एक किये हुए हैं।यही कारण है कि यह पत्र देखते ही देखते सोसल मीडिया पर हजारो लोगो तक वायरल हो गया ।
अब सवाल उठता है कि यह ऑफिसियल पत्र जिसे लिखा गया हैं उसे मिला ही नही और कर्यालय से पत्र जारी होने के आधे घण्टे में वायरल हो गया ,जिससे प्रवंधन की भूमिका भी क्या सन्देह के कटघरे में आके खड़ी नही हो गयी? या प्रबन्धन पर्दे के पीछे से दोहरी चल तो नही चल रहा है?फुट डालो राज करो कि नीति अपना कर?पर पत्र का वायरल होना निश्चित ही अनेको अनुत्तरित प्रश्न खड़े कर दिए हैं?जिनका जबाब तो तलाशना ही पड़ेगा?