सुनील कुमार
एक बड़े हिन्दी समाचार चैनल की एक वीडियो क्लिप चारों तरफ तैर रही है जिसमें भाजपा के सबसे हिंसक बात करने वाले राष्ट्रीय प्रवक्ता संदीप पात्रा एक मुस्लिम नेता को जीवंत प्रसारण के बीच धमकाते हुए कह रहे हैं- अरे सुनो, अल्लाह के भक्त हो तो बैठ जाओ, वरना किसी मस्जिद का नाम बदलकर भगवान विष्णु के नाम रख दूंगा।
अपने पैनल पर बुलाए गए किसी प्रवक्ता की कही ऐसी बातों पर टीवी चैनल को भी कोई दिक्कत नहीं रही, दूसरी तरफ उस पैनल में बैठे हुए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के प्रवक्ताओं ने भी इस पर कुछ नहीं कहा। यह नौबत देश में खुलकर साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने में एक मौन सहमति का कुसूरवार इन तमाम लोगों को साबित कर रही है, और चैनल, बाकी पैनलिस्ट एक मुस्लिम नेता को ऐसे हमले के सामने अकेला छोड़कर, और चुप रहकर अपना नजरिया साफ कर दे रहे हैं। कोई हैरानी नहीं है कि देश के मुस्लिम धीरे-धीरे कांग्रेस को छोड़कर जा चुके हैं, और समाजवादी पार्टी भी मुस्लिमों के बीच अपनी बुनियाद खोती जा रही है। अब सवाल राजनीति से परे मीडिया का है जो कि पिछली चौथाई सदी में इस्तेमाल में आया शब्द है, जिसके पहले तक इसके लिए प्रेस या अखबारनवीसी का इस्तेमाल होता था।
राजनीति में तो लोगों के गंदे और हिंसक बयान चलते ही आए हैं, लेकिन अब समाचार चैनल अपने आपको मुकाबले में दूसरे चैनलों से आगे बढ़ाने के लिए ऐसी गलाकाट स्पर्धा में लगे दिखते हैं जिसमें अक्सर यह लगता है कि उस पर होती नोंक-झोंक, उस पर चलती हिंसक और साम्प्रदायिक बातचीत के पीछे एक सोची-समझी साजिश रहती है। कमअक्ल दर्शकों को बांधे रखने के तौर-तरीकों को रोज नया-नया ढूंढना आसान नहीं होता है, और ऐसे में चैनल कहीं किसी बाबा को पकड़ लाते हैं, तो कहीं किसी बेबी को, और उनसे हिंसक, सनसनीखेज, या अश्लील बातें करवाते हैं। दर्शकों के साथ दिक्कत यह है कि वे दिमाग पर जोर डालने वाली गंभीर बातों को देखना-सुनना नहीं चाहते, और वे अपनी जिंदगी का बचाखुचा वक्त ऐसी ही बकवास की छाया में सुकून से गुजार देना चाहते हैं। नतीजा यह है कि यह सिलसिला बढ़ते चल रहा है, और लोग दूसरे को पीछे छोडऩे के लिए दूसरे से अधिक नीचे गिरने के मुकाबले में लगे रहते हैं।
अब सवाल यह है कि इस देश में संवैधानिक दर्जा प्राप्त एक प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया है जो कि बाकी मीडिया का कामकाज तो देखता है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का काम उसके दायरे में नहीं आता। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुकर्मों पर जब उसकी निगरानी रखने वाले नेशनल ब्रॉडकॉस्टर्स एसोसिएशन की अनदेखी इस तरह हावी है, तो मीडिया का यह हिस्सा देश में आग लगाने पर उतारू दिखता है।
एक दूसरी बात यह भी है कि देश का कानून भी भड़काऊ और उकसाऊ बातों पर समय रहते कोई कार्रवाई करने में पूरी तरह बेअसर दिख रहा है क्योंकि बरसों तक, अधिकतर मामलों में दशकों तक कोई कार्रवाई नहीं होती है। और अब भारत में धीरे-धीरे माहौल यह बन रहा है कि हिंसक बातें कहना लोकतांत्रिक है।
Sambit to MIM spokesman “Aye Suno Allah ke bhakt ho to baith jao warna kisi masjid ka naam badal kar bhagwan Vishnu ke naam rakh doonga” pic.twitter.com/agM2ClA8SN— Ravi Ratan (@scribe_it) November 9, 2018
जिस तरह शहरों में लोग गंदी हवा को शहरी हवा मान बैठे हैं, जिस तरह कॉमेडी शो में अश्लीलता और फूहड़ता को कॉमेडी मान लिया गया है, जिस तरह सरकारी काम को लेटलतीफी वाला और रिश्वत से ही होने वाला मान लिया गया है, उसी तरह अब सार्वजनिक बहसों में हिंसा और साम्प्रदायिकता, धमकी और गालियों को लोकतांत्रिक मान लिया गया है। यह सिलसिला थमना चाहिए। (Daily Chhattisgarh)