ज्ञान की जननी भारत में दुनिया का नेतृत्व करने की क्षमता है,भारत विश्व गुरु है,ऐसी बाते सुन कर और पढ़ कर मन प्रफुल्लित हो उठता है। साथ ही एक सवाल मन में उठता है आख़िर ऐसा कब होगा? क्या मौजूदा राजनीती ऐसा कोई कोशिश कर भी रही है? जनता के हर मुद्दों की व्याख्या राष्ट्रवाद के चश्में को पहनकर करने वाले टीवी डिबेट पर ज्ञान बघारते प्रवक्ताओं और सत्ता के लिए संवैधानिक पदों पर बैठे कुछ तथाकथित नेताओं की भाषाओं को सुन कर ऐसा तो नहीं लगता,क्योंकि अभद्र और धमकी वाली भाषा गुंडे मवालियों की तो हो सकती है लेकिन ज्ञान की जननी कि संतान की तो कतई नहीं हो सकती।
अब्दुल रशीद
ऐसे लोग के पास ज्ञान का थोड़ा भी अंश होता तो उन्हें जरुर यह जानकारी होती की भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और यह देश संविधान से चलता है जो, भारत में रहने वाले हर भारतीयों को सामान अधिकार देता है। और यह भी पता होता की महज़ पहचान के आधार पर किसी समुदाय को देश से निकलना और गद्दार कहना असंवैधानिक है।
अब एक नया विचार लोगों के मन में बैठाया जा रहा है की,कानून संविधान और संवैधानिक संस्थाएं यह सब जनता के लिए है और लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है,लेकिन यह आधा सच है जो न केवल लोकतंत्र के लिए बल्कि मानवता के लिए भी घातक है। ज़रा सोंचिए,जंगलो में कौन सर्वोच्च होता है,वही जो सबसे बड़ा ताकतवर समूह होता है,जो अपने ताक़त के दम पर अपनी मनमर्जी करता है,जिसे चाहे जहां चाहे घेर कर क्रूरतापूर्वक मार डाले,न कोई क़ायदा,न कोई कानून और न कोई जवाबदेही,वहां सभ्यता संस्कृति,परम्पराओं और संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं होता है, यही फर्क है इंसान और जानवर में। दरअसल लोकतंत्र में जनता को सर्वोच्च इसलिए कहा गया है के वह अपने वोट के द्वारा चुनकर नेताओं को सत्ता के शिखर पर पहुंचा कर संवैधानिक रूप से देश चालने की बागडोर दे सकती है तो असंतुष्ट होने पर बागडोर छीन भी सकती है।
अर्थात संवैधानिक पद पर बैठे हर व्यक्ति का दायित्व है की वह देश के लिए,देश हित के लिए और देशवासियों के लिए काम करे,लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ पत्रकार के रूप में पत्रकारिता करे और जनता उनके क्रियाकलापों को समीक्षा करती रहे,ताकी जब पांच साल बाद नेता अपने कार्यों का रिपोर्ट कार्ड लेकर चुनाव रूपी परीक्षा देने आए तो जनता कार्यों के रिपोर्ट कार्ड के आधार पर पास फेल कर सके।
पांच विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं,इन नतीजों में न कोई लहर दिखा न कहर,न शब्दवीरों की वीरता काम आई न ही एक रंगा पाखंड की पाखंडता काम आई,पांचो राज्यों के चुनावी नतीजे ने यह मिथ्य भी तोड़ दिया कि भारतीय लोकतंत्र में न कोई राजनीतिक पार्टी चंद चुनाव जीत कर ख़ुद को अजेय बना सकता है न ही कोई राजनीतिक पार्टी चंद चुनाव हार अस्तित्वहीन हो सकता है। जिस भाजपा में नेताओं की फ़ौज थी वह भाजपा हार गई और जिस कांग्रेस को नेताविहीन कहा जा रहा था वह तीन राज्यों में चुनाव जीत गई, लेकिन मिज़ोरम हार गई और दोनों राष्ट्रीय पार्टी तेलंगाना में क्षेत्रीय पार्टी के सामने बौनी हो गई।
कुल मिला कर जनता जीत गई और यह संदेश भी दे दिया की कोई भी राजनीतिक पार्टी बहुत दिनों तक जुमलों के सहारे ठग नहीं सकती। सरकार यदि अपने वायदों को पूरा नहीं करती और जनता के समस्याओं को दरकिनार कर भावनाओं को भड़का कर वोट हासिल करना चाहती है तो यह भ्रम है। राजनीती में निति विहीन का मतलब जनता समझती है और एक हद तक इंतज़ार करती है और फिर फैसला सुनाने में कोई कोताही नहीं करती।
कुल मिला कर जनता जीत गई और यह संदेश भी दे दिया की कोई भी राजनीतिक पार्टी बहुत दिनों तक जुमलों के सहारे ठग नहीं सकती। सरकार यदि अपने वायदों को पूरा नहीं करती और जनता के समस्याओं को दरकिनार कर भावनाओं को भड़का कर वोट हासिल करना चाहती है तो यह भ्रम है। राजनीती में निति विहीन का मतलब जनता समझती है और एक हद तक इंतज़ार करती है और फिर फैसला सुनाने में कोई कोताही नहीं करती।