चौराहे पर चर्चा हैं कि.. चिकने घड़ों की चिकनी-चुपड़ी बातों का हवा-हवाई पुलिंदा यानि घोषणा-पत्र आया हैं। जरा.. बचके रहियेगा.. बहेलियों ने नया जाल बिछाया हैं। घोषणाएं तो क्या हैं... बस पार्टियाँ नये-नये झूठ छांटकर लाती हैं। दरअसल मूर्खों को महामूर्ख बनाने की ये विद्या.. 'राजनीति' कहलाती हैं। इस विद्या के धुरंधरों की 'शाही कोठियां' हर रोज़ जनता के पसीने को गाली देती हैं.. और बेचारी जनता इतनी नादान हैं कि इन गालियों पर भी ताली देती हैं। वो समझ ही नही पाती कि ये हमदर्द नही... बस दोगले चरित्र की लफ्फाजियों में रंगे हैं। ये राजनीती 'नैतिकता की गंगा' नही.. बल्कि मक्कारी का ऐसा हमाम हैं.. जिसमे सब नँगे हैं। चुनाव का तो मतलब ही यही हैं... आपने जिसको चुन लिया.. पांच साल तक आपकी जेब कटेगी और उसका कुर्ता सिलेगा। जनता का तो क्या हैं.. ना कुछ मिला था, ना कुछ मिला हैं.. और ना कभी मिलेगा।
डॉ आदित्य जैन 'बालकवि''
आ गये चुनाव, जाग गया लगाव, चढ़ा लिया जनेऊ, बता दिया गौत्र, तय कर ली अपनी जाति। अपने जमीर की हत्या करते हुए शर्म नही आती। वोटो की ऐसी भी क्या हुंक उठी कि धर्म की टांग तोड़कर स्वार्थ को बड़ा कर दिया। चार वोटों की खातिर अली को बजरँगबली के खिलाफ खड़ा कर दिया। ऊपर से भगवान को अगड़ा या पिछड़ा बताते हो। यार इतनी बढ़िया क्वालिटी की चरस कहाँ से लाते हो ! सियासत की खूंटी पर नैतिकता को तो पहले ही टांग चुके थे.. अब बेचारी आस्था का भी कत्ल कर रहे हो। ऊपर से इल्जाम भी भगवान के सर धर रहे हो। हुजूर आप तो गिरगिटों के भी बाप निकले। बिहार के टॉपरों से ज्यादा लल्लनटॉप निकले। जानते हो आपकी ये नौंटकी देखकर बेचारे 'लोकतंत्र' को लकवा मार गया हैं। वोटों के अखाड़े में सियासत की जीत हुई हैं और देश फिर से हार गया हैं।
काहे के नियम.. काहे का हिसाब, सबको पता हैं जनाब कि आप प्रॉफिट में और जनता घाटे में हैं। योजनाओं का सारा नमक आपके चहेतों के आटे में हैं। ये नौटंकियां, ये इमोशनल ड्रामा.. ये अपनापन तो बस चुनावी मस्का है। असल में चटोरों को मलाई खाने का चस्का है। हे 'अनुमान' पे जीने वाले 'आत्ममुग्ध लोगों !... कभी धरातल पर आकर पीड़ाएँ तो भोगों, हकीकत आज भी शून्य हैं.. सिर्फ 'दावें' बड़े-बड़े हैं। सच तो ये है... कि हम जहां से चले थे...आज भी वहीं के वहीं खड़े हैं।
मत खेलो जनता के साथ 'चिड़िया उड़, कौआ उड़' का ये बचकाना खेल, वरना जनता चुनाव में तोते उड़ा देगी। सम्भलने का मौका भी नही देगी। ये नई घोषणाएं छोड़ो.. पहले पुराने प्रोजेक्टों से इंसाफ कर लो। आइने पे पोंछा बाद में लगाना... पहले चेहरे की धूल तो साफ कर लो। क्यों 'सतरंगी-सपने' दिखा कर भोली जनता के भरोसे को तोड़ रहे हो । छोटे-छोटे काम तो ढंग से होते नही... और आप हो कि चुनाव आते ही "ऊंची-ऊंची" छोड़ रहे हो। घोषणाओं के नाम पर फालतू वादों की घास मत चरो। 'रोजगार देंगे, शिक्षा देंगे' ये घिसी-पिटी लाइन सुना-सुनाकर भेजा खराब मत करो। फिलहाल अपने हाल पर बहुत शर्मिंदा है। मगर याद रखना ए सियासत !... जनता सोई नहीं है... "टाइगर अभी जिंदा है"।