वर्ष 2007 में पेइचिंग में पदस्थ अमेरिकी राजदूत ने चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव(मौजूदा प्रधानमंत्री) ली कछयांग से मुलाकात की।ली ने राजदूत से कहा कि सकल घरेलू उत्पाद(जीडीप) के आँकड़े विश्वसनीय नहीं हैं।उन्होंने अचल संपत्ति के तीन संकेतकों में रेलवे कार्गो वॉल्यूम, बिजली की खपत और बैंकों के ऋण वितरण पर भरोसा करने की बात कही।इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने इसी आधार पर ली कछयांग सूचकांक बनाया।बाद के विश्लेषण ने दिखाया कि लगभग हर जिंस और मुद्रा के लिए यह सूचकांक जीडीपी की तुलना में कहीं अधिक प्रासंगिक है।
राहुल लाल
क्या वक्त आ गया है कि ली कछयांग सूचकांक का कोई भारतीय संस्करण तैयार किया जाए?यह सवाल इसलिए उत्पन्न हुआ क्योंकि इस सप्ताह आए जीडीपी के संशोधित आँकड़ों को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया है।जीडीपी किसी भी देश की आर्थिक सेहत को मापने का सबसे जरूरी पैमाना है।जीडीपी किसी खास अवधि के दौरान वस्तु और सेवाओं के उत्पादन की कुल कीमत है।भारत में जीडीपी की गणना हर तीसरे महीने यानी तिमाही आधार पर होती है।
इस वर्ष की शुरुआत में केंद्र सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग(एनएससी) की तकनीकी कमेटी के अनुमानों को खारिज कर दिया था,फिर नीति आयोग और केंद्रित सांख्यिकी कार्यालय(सीएसओ) ने वैकल्पिक आंकड़ों को जारी किया।
इसके बाद से कई विवाद खुलकर सामने आए।इन आँकड़ों में आर्थिक मोर्चे पर यूपीए सरकार की तुलना में एनडीए सरकार के प्रदर्शन को काफी बेहतर बताया गया।इन अनुमानों के मुताबिक,यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान जीडीपी ने कभी 9% के आँकड़े को नहीं छुआ।हालांकि इसके उलट राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी)की कमेटी ने 2007-08 में 10.23% और 2010-11 में 10.78% जीडीपी का अनुमान दर्शाया था।इस मसले पर वित्त मंत्री अरुण जेटली और उनके पूर्ववर्ती वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बीच राजनीतिक द्वंद्व के अलावा, पूरी प्रक्रिया पर सीएसओ के पूर्व अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने भी कई सवाल उठाएँ हैं।
दिक्कत यह है कि बीते चार वर्षों के दौरान अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन उससे पहले के 10 वर्षों के प्रदर्शन से बेहतर रहने के दावे को अगर ली कछयांग की शैली के आँकड़ों के आधार पर वास्तविक अर्थव्यवस्था के मानकों पर कसा जाए,तो सारे दावे हवा में उड़ जाते हैं।
कॉरपोरेट बिक्री,मुनाफे और निवेश के आँकड़े,कर राजस्व, ऋण वृद्धि,निर्यात एवं आयात आदि सभी के आँकड़े इसकी गवाही देते हैं।ऐसे संकेतकों पर भी निगाह डाली जा सकती है,जिनका वर्णन ली ने किया था।उदाहरण के लिए रेलवे बैगन लोडिंग और बिजली की खपत।परंतु भारत में समस्या यह है कि कुल माल ढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी बहुत सीमित है।बिजली उत्पादन क्षमता का एक बड़ा हिस्सा भी ग्रिड से बाहर है ,इसलिए खपत वृद्धि का अंदाजा लगाना आसान नहीं है।
आखिर जीडीपी के आँकड़े क्या हैं?
जीडीपी अर्थात ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट की दर एक "आधार वर्ष"के उत्पादन की कीमत पर तय होती है।अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक बदलावों के मद्देनजर आधार वर्ष की अवधि में समय-समय पर बदलाव किए जाते हैं।2015 में इसी बदलाव के तहत आधार वर्ष को 2004-05 से बदल कर 2011-12 किया गया।
इससे जीडीपी के दो अनुमान मिले - 2004-05 के आधार वर्ष के साथ पुरानी सीरीज और 2011-12 के नए आधार वर्ष पर नई सीरीज।जब आधार वर्ष में बदलाव किया गया तो नई सीरीज में प्रणाली संबंधी कई सुधार भी किए गए।लेकिन वहाँ भी एक समस्या थी।पुरानी सीरीज से 1950-51 से 2014-15 तक के जीडीपी अनुमान मिले,जबकि नए जीडीपी सीरीज ने केवल 2011-12 से आगे का ही अनुमान दिया।पहलत: 2011-12 से पहले के ट्रेंड का कोई सार्थक शोध नहीं किया जा सकता था,यह अकादमिक शोध के साथ ही नीतियाँ बनाने और इसके मूल्यांकन को अंधेरे में रखता है।
इस नई सीरीज में ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) में प्राथमिक क्षेत्रों (उत्खनन, विनिर्माण, बिजली,दूरसंचार आदि) की हिस्सेदारी बढ़ा दी गई है,जिस कारण पुराने जीडीपी आँकड़ों में बदलाव आया है।दूसरे आँकड़े जुटाने का तरीका भी इस नई सीरिया में बदल दिया गया है।
जीडीपी का पूर्व में आकलन प्रक्रिया कैसा था?
पहले के दशकों में,आधार वर्ष में जब भी बदलाव किया गया,जैसे कि जब 2004-05 में आधार वर्ष बदला गया,तो जीडीपी सीरीज ने 1950-51 तक की जीडीपी का अनुमान लगाया था।फिर सांख्यिकी विशेषज्ञों वाली राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग अर्थात एनएससी कमेटी ने इस साल अगस्त में एक और बैट सीरीज जारी की।इसमें यह दर्शाया गया कि मोदी सरकार के पहले चार वर्षों की तुलना में यूपीए के 2004-05 से 2013-14 की अवधि में अर्थव्यवस्था में कहीं तेज वृद्धि हुई थी।सांख्यिकी मंत्रालय की वेबसाइट पर इसे जारी करने के करीब 15 दिनों के बाद सरकार ने इन अनुमानों को औपचारिक बताते हुए रिपोर्ट को 'ड्राफ्ट' कहकर खारिज कर दिया।
जीडीपी के नए आँकड़ों के तकनीकी तौर पर पुराने अनुमानों से बेहतर होने के चाहे कितने भी दावे किए जा रहे हों लेकिन उनकी विश्वसनीयता के लिए जरुरी है कि उन्हें हकीकत की कसौटी पर कसा जाए।इस मोर्च पर नए आँकड़े नाकाम साबित हो रहे हैं।वर्ष 2007-08 के तेज वृद्धि वाले दौर की वृद्धि को 9.8% से फीसदी से घटाकर 7.7% कर दिया गया है।
यह वृद्धि अत्यंत संकटग्रस्त वर्ष 2013-14 की 6.4% की दर से थोड़ी ही अधिक है।निश्चित तौर पर तेजी और सबसे अधिक संकटग्रस्त वर्षों के बीच तेजी का अंतर महज 1.3 फीसदी तो नहीं हो सकता।नए आँकड़ों के बचाव में दावा किया गया कि कॉरपोरेट मुनाफा विश्वसनीय संकेतक नहीं माना जा सकता,क्योंकि हालिया दौर में अधिकांश राशि वेतन भत्तों में खर्च हो गई।
इस बात पर यकीन करना मुश्किल है,क्योंकि आम अनुभव यही है कि मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में तेजी के वर्षों में वेतन में वृद्धि अधिक हुई।यह मानना भी तार्किक होगा कि जब कंपनियों का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो वे बेहतर भुगतान करती हैं।पहले नोटबंदी और उसके बाद जीएसटी लागू होने से बाजार में जो विसंगतियाँ उत्पन्न हुईं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि असंगठित अर्थव्यवस्था ने संगठित क्षेत्र की शिथिलता की भरपाई नहीं की है।
इसी तरह इन आँकड़ों में 2010-11 के 10.3% दहाई के आँकड़ों को भी घटाकर 8.5% कर दिया गया।यह यूपीए सरकार के कार्यकाल का वो एकमात्र वर्ष था,जब देश ने दहाई अंक में वृद्धि दर्ज की थी।
जीडीपी के आँकड़े और नीति आयोग से संबंधित विवाद
गुरुवार, नवंबर अंतिम सप्ताह में यह बात भी सामने आई थी कि नीति आयोग और सीएसओ ने इस पर साथ काम किया था।यही वजह है कि नीति आयोग के मंच से बैक सीरीज जारी की गई थी,इसके उपाध्यक्ष राजीव कुमारी के ट्वीट्स से यह बात सामने आई।नीति आयोग का इससे जुड़ना बेमिसाल होने के साथ ही विवादास्पद भी था और सीएसओ और भारतीय सांख्यिकी की विश्वसनीयता पर भी बड़ी चोट है।सीएसओ के पूर्व प्रमुखों ने नीति आयोग की भागीदारी पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।
सीएसओ को सांख्यिकी के जानकरों द्वारा चलाई जाने वाली पेशेवर संस्था माना जाता है।दूसरी तरफ नीति आयोग की स्थिति सरकार के पक्षकार के रुप में रहती है।ऐसे में नीति आयोग के मंच से जीडीपी आँकड़े जारी होने पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
अर्थशास्त्र का नियम है कि ज्यादा निवेश बढ़ी हुई जीडीपी का कारण बनता है,ऐसे में निवेश जीडीपी अनुपात में कमी होने के बावजूद जीडीपी में बढ़ोतरी कैसे हो सकती है?इस बीच पेशेवर अर्थशास्त्रियों ने अनिरंतरताओं की ओर इशारे किया है।उदाहरण के लिए असमायोजित और वास्तविक आंकड़ों में अंतर।असमायोजित आंकड़ों से पता चलता है कि पहले और बाद में बहस अधिक अंतर नहीं आया जबकि वास्तविक आँकड़ों में तेज गिरावट देखने को मिली।
आमतौर पर विशेषज्ञों की राय है कि इन हालातों में वास्तविक आंकड़ों में इजाफा होना चाहिए।कुल मिलाकर जीडीपी आँकड़ों में ये संशोधन असामान्य रूप से बड़े हैं और इस डेटा बेस के समर्थन में जो स्पष्टीकरण दिए जा रहे हैं,वो बेहद सतही हैं।ऐसे में जीडीपी के नए बैक सीरीज के आँकड़ों में विश्वसनीयता की कमी स्पष्टत: देखी जा सकती है।
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